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ग्रामीण परिवेश की खींचातानी के साथ सरकारी विद्यालय, हिंदी माध्यम और आर्थिक रूप से जूझ रहे परिवार से निकल के जब कोई छात्र शहर पढ़ने जाता है तब उसके सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के बी
ग्रामीण परिवेश की खींचातानी के साथ सरकारी विद्यालय, हिंदी माध्यम और आर्थिक रूप से जूझ रहे परिवार से निकल के जब कोई छात्र शहर पढ़ने जाता है तब उसके सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के बीच की तालमेल को शब्दों में पिरोने की और आबादी की भार ढोती प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र जो विशेष कर गांव-देहात से आते है उनकी जिंदगी को चित्रित करने की छोटी सी कोशिश है जिंदगी रेल सी।
'बेटा... उठो, सुबह हो गयी' पिताजी की आवाज कानों मे सुनाई दी। आज देर तक सोया था क्युंकि स्कूल नही जानी थी, आज गर्मी की छुट Read More...
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