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"It was a wonderful experience interacting with you and appreciate the way you have planned and executed the whole publication process within the agreed timelines.”
Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Palडॉ अपूर्व पौराणिक की मेडिकल शिक्षा एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज, इन्दौर तथा AIIMS, नई दिल्ली में मेरिट से परिपूर्ण पदकों के साथ सम्पन्न हुई। अपनी मातृ संस्था (मेडिकल कालेज, इन्दौर) में 36 वर्षों तक (1981-2018) एक अति लोकप्रिय और सम्मानित प्राध्यापक रRead More...
डॉ अपूर्व पौराणिक की मेडिकल शिक्षा एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज, इन्दौर तथा AIIMS, नई दिल्ली में मेरिट से परिपूर्ण पदकों के साथ सम्पन्न हुई। अपनी मातृ संस्था (मेडिकल कालेज, इन्दौर) में 36 वर्षों तक (1981-2018) एक अति लोकप्रिय और सम्मानित प्राध्यापक रहे। महाराजा यशवन्त राव चिकित्सालय इन्दौर में समर्पित और खूब व्यस्त क्लीनिकल न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में मरीजों की सेवा करी और यश प्राप्त किया।
डॉ पौराणिक हिन्दी के उपासक और अनुरागी है। हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा को बढ़ावा देने के काम में लगे है। जन स्वास्थ्य शिक्षा, मरीज-परिजन शिक्षा तथा उनके हितों के लिये पैरवी (Advocacy) आपके मिशन है।
डॉ अपूर्व खूब पढ़ते और लिखते हैं। उनकी रुचि और ज्ञान का दायरा न्यूरोलॉजी व चिकित्सा से परे विज्ञान तथा कला (मानविकी) के तमाम विषयों तक व्याप्त है।
‘न्यूरोज्ञान’ नाम से एक समृद्ध वेबसाईट तथा यू-ट्यूब और पाडकास्ट चैनल्स सक्रिय है। क्लिनिकल टेल्स के पुरोधा डॉ आलिवर सॉक्स का साक्षात्कार लेने वाले एक मात्र भारतीय न्यूरोलॉजिस्ट डॉ पौराणिक ने अपने मानस गुरु डॉ सॉक्स से प्रेरणा लेकर मेडिकल कथाओं के रूप में साहित्य लेखन में भी थोड़ी दखल दी है।
इन्दौर में चिकित्सा शोध प्रकाशन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से Indore Annual Award for Medical Publications (स्थापना 2019) दिया जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर चिकित्सा शिक्षा और वृत्ति में मानविकी या Humanities के विषयों को बढ़ावा देने हेतु श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सम्मानित और प्रोत्साहित करने के लिये National Annual Award for Medical Humanities (स्थापना 2019) दिया जाता है। मेडिकल छात्रों में ह्यूमेनिटीज विषयों में रुचि जागृत करने और उन्हें पढ़ने का अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज, इन्दौर की लाइब्रेरी में Fiction तथा Nonfiction की हिन्दी और अंग्रेजी पुस्तकों का एक वृहत संग्रह स्थापित किया गया है। विस्तृत लेखक परिचय के लिये स्कैन करें।
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इस पुस्तक का लिखा जाना, मेरे लिए एक और भावनात्मक संतुष्टि व उपलब्धि का विषय है। मेरे दिवंगत पिता श्री कृष्णवल्लभजी पौराणिक (1929-2016) ने जीवन के अंतिम 15 वर्ष पार्किन्सन रोग के साथ गुजा
इस पुस्तक का लिखा जाना, मेरे लिए एक और भावनात्मक संतुष्टि व उपलब्धि का विषय है। मेरे दिवंगत पिता श्री कृष्णवल्लभजी पौराणिक (1929-2016) ने जीवन के अंतिम 15 वर्ष पार्किन्सन रोग के साथ गुजारे। इस पुस्तक में मेरी दोहरी भूमिका है। एक न्यूरोलॉजिस्ट लेखक और एक पुत्र की। पापा के पार्किन्सन रोग के साथ मेरे अनुभवों को बीच बीच में शामिल किया गया है। एक चिकित्सक शिक्षक और एक पुत्र दोनों बारी-बारी से अपनी बात अलग-अलग तरीके व अलग-अलग दृष्टिकोण से कहते हैं। आशा है कि वैज्ञानिक और व्यक्तिगत का यह मेल रोग के बारे में न केवल ज्ञान समझ बल्कि संवेदना– सहानुभूति को भी बढ़ावा देगा। हिन्दी भाषा में ऐसे प्रयास कम हैं। मेरा दृढ़ विश्वास रहा है कि हिन्दी व भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक तथ्यों को अभिव्यक्त करने की बृहत व प्रांजल क्षमता है। उसका दोहन और विकास नहीं हुआ है। शर्मनाक हालत है। न माँगने वाले हैं, न प्रदान करने वाले। कौन पहले आए? मैंने एक प्रदायक के रूप में शुरूआत करने की कोशिश की है। मैं नहीं जानता कि यह रचना कितनी उपयोगी होगी तथा चाहत को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करेगी या नहीं। चाहे जो हो, मैंने तो अपनी ओर से आहुति डाली है।
इस पुस्तक का लिखा जाना, मेरे लिए एक और भावनात्मक संतुष्टि व उपलब्धि का विषय है। मेरे दिवंगत पिता श्री कृष्णवल्लभजी पौराणिक (1929-2016) ने जीवन के अंतिम 15 वर्ष पार्किन्सन रोग के साथ गुजा
इस पुस्तक का लिखा जाना, मेरे लिए एक और भावनात्मक संतुष्टि व उपलब्धि का विषय है। मेरे दिवंगत पिता श्री कृष्णवल्लभजी पौराणिक (1929-2016) ने जीवन के अंतिम 15 वर्ष पार्किन्सन रोग के साथ गुजारे। इस पुस्तक में मेरी दोहरी भूमिका है। एक न्यूरोलॉजिस्ट लेखक और एक पुत्र की। पापा के पार्किन्सन रोग के साथ मेरे अनुभवों को बीच बीच में शामिल किया गया है। एक चिकित्सक शिक्षक और एक पुत्र दोनों बारी-बारी से अपनी बात अलग-अलग तरीके व अलग-अलग दृष्टिकोण से कहते हैं। आशा है कि वैज्ञानिक और व्यक्तिगत का यह मेल रोग के बारे में न केवल ज्ञान समझ बल्कि संवेदना– सहानुभूति को भी बढ़ावा देगा। हिन्दी भाषा में ऐसे प्रयास कम हैं। मेरा दृढ़ विश्वास रहा है कि हिन्दी व भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक तथ्यों को अभिव्यक्त करने की बृहत व प्रांजल क्षमता है। उसका दोहन और विकास नहीं हुआ है। शर्मनाक हालत है। न माँगने वाले हैं, न प्रदान करने वाले। कौन पहले आए? मैंने एक प्रदायक के रूप में शुरूआत करने की कोशिश की है। मैं नहीं जानता कि यह रचना कितनी उपयोगी होगी तथा चाहत को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करेगी या नहीं। चाहे जो हो, मैंने तो अपनी ओर से आहुति डाली है।
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