पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा रचित ‘गोवर्धन मठ’ उपन्यास उनके द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास में समसामयिक राजनीति, सामाजिक अन्तर्विरोध, साम्प्रदायिक विडम्बना एवं कट्टर मत मतान्तर के पारस्परिक वैर का तादृश्य चित्रण है। सभी मतवादी पण्डित और विद्वान अपने मत की विजय तथा अन्य मतों की पराजय चाहते हैं। चारों ओर यज्ञों में हिंसा, आचार की विवेक शून्यता, विषम रूढ़ियां, जातिगत क्रूर अनुशासन, हीन भावना आदि से समाज सड़ रहा था। प्रजा दिशाहीन थी। इस पृष्ठभूमि के सजीव चित्रण के साथ ज्ञान और भक्ति का अनुपम अपूर्व संगम का सृजन उपन्यासकार ने किया है। जगद्गुरू शंकर की महाभाव की स्थिति, पद्मपाद की भक्ति के आवेश में चित्ताकाश में गूंजती स्तवन ध्वनि का आलेखन इस उपन्यास की अनूठी विशेषता है।
अन्त में स्पष्ट कर दिया है कि यह माया, जगत, दर्पण खण्ड-खण्ड है और ब्रह्म की धारणाओं के प्रतिबिंबों से भरा है। बिंब एक है, अखण्ड है, अभय है। विष्वास सत्य का ही है। देह की तो छाया तथा जगत् की माया है। शास्त्र आत्मा का विचार करता है, वेदान्त आत्मा को प्रत्यक्ष करवाता है। गृहस्थों के लिए अनासक्त कर्म तथा जगन्नाथ की शरणागति ही चाहिए। सर्वज्ञ सभी में ब्रह्म है, प्रज्ञान है। अतः महावाक्य हुआ- ‘‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’’