पण्डित जनार्दन राय द्वारा रचित वृहत् उपन्यास ‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’ के 10 भागों में से अन्तिम चरण की ओर अग्रसित ‘‘ज्योतिर्मठ’’ अत्यधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। इस पुस्तक में पांचरात्र सम्प्रदाय द्वारा विरोध कर बद्रीनाथ के समीप ज्योतिर्मठ की स्थापना कथावस्तु का प्रमुख सूत्र है। वल्लभी और वाह्लीक में जैन आचार्यों तथा उज्जयनी में भट्ट भास्कर के साथ शास्त्रार्थ जहां दार्शनिक तर्क पद्धति का सजीव चित्रण है, वहीं भट्ट भास्कर और उनकी पत्नी, राजेश्वर सुधन्वा और रानी अर्पणा के संवाद उपन्यास को सरसता प्रदान करते हैं। इसी एक उपन्यास के पढ़ने मात्र से भारत की सभी प्रमुख विचार धाराओं का ज्ञान पाठक को हो जाता है। इस उपन्यास के साथ अद्वैत की अविरल, अनवरत, अथक यात्रा के अन्तिम चरण की समाप्ति हुई। लेखक का दर्शन धारा प्रवाह अपने लक्ष्य कर पहुंच कर हिमालय में प्रतिध्वनित हो गया और शंकर कह उठे- .... यह मठ अथर्ववेद का स्थान होगा। देवाधिदेव इस मठ के देव होंगे- थे; हैं; यह ज्योतिर्मय भारत है। इस ज्योति मठ का आधारभूत वाक्य होगा- ‘अयमात्मा ब्रह्म’। यह मैं, आत्मा, ब्रह्म हूं- न मैं मुक्ति; न मैं शास्त्र, न मैं गुरू; चिदैव देहस्तु, चिदेव लोकानि भूतानि, चिदिन्द्रियाणी, कर्ता चिदन्तः करणम् चिदेव, चिदेव सत्यम् परमात्म रूपम्।
जगद्गुरू की शब्द ध्वनियां सब के मन में गूंजती हैं- ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’
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