स्वयं को बचाने के गीदड़ जैसी चपलता और भेड़िए जैसी चालाकी अति आवश्यक है। दफ्तर के कायदे कानून एक हिरण को भी भेड़िया बनने को बाध्य कर देते हैं। और भेड़िए का स्वभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है , ये सबको ज्ञात है।
फिर आप किसी व्यक्ति से जो कि स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए तमाम बुराइयों को आत्मसात कर हीं लेता है तो उसपे प्रश्नचिन्ह क्यों? वास्तविकता तो ये है कि कुछ बुराइयां अत्यावश्यक हो जाती है आजीविका के लिए।
फिर एक रोजगार के लिए संघर्षरत व्यक्ति से धार्मिकता की उम्मीद क्यों? एक भेड़िया होकर भी कोई धर्मिक रह सकता है क्या? प्रश्न ये है कि जंगल नुमा दफ्तर में काम करते हुए अच्छाइयों को बचा के रखा जा सकता है क्या?
प्रस्तुति है जीवन के कुछ इसी तरह की सच्चाइयों , परिस्थियों और प्रश्नों से रु- ब- रू कराती हुई कुछ व्यायंगात्मक लघु कथाएं।