‘माँ की मृत्यु’ एक खण्डकाव्य है, जो सन् १९७४ में काव्यकार ने अपनी माँ की मृत्यु के बाद लिखा। यह काव्य तात्कालीन गांव की उन सामाजिक परिस्थितियों को दर्शाता है, जो उस समय समाज में व्याप्त थी जैसे मृत्युभोज । काव्यकार को जो अनुभव मरघट पर विविध व्यक्तियों से हुए एवम् जिस तरह से उन्हें संवेदनाएं दी गई वे बडी ही विचित्र थी। कुछ व्यक्ति मरघट पर भी अनर्गल वार्तालाप कर सकते हैं एवम् इतने निष्ठुर हो सकते हैं, यह तो काव्यकार ने उस समय ही जाना था। इस खण्डकाव्य में माँ की मृत्यु के बाद के उन बारह दिनों का वर्णन है, जिसमें उनको पारिवारिक कलह से भी साक्षात्कार करना पडा।
कुल मिलाकर इस खण्डकाव्य में उसी दाह संस्कार एवं तत्पश्चात् की घरेलू एवं सामाजिक परिस्थितियों एवं कुरूतियों का वर्णन है, जिनसे होकर काव्यकार के कोमल हृदय को गुजरना पड़ा, जिनकी उम्र उस समय मात्र १७ वर्ष थी। आशा है, यह काव्य हर मानव-मन को झकझोरेगा।
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