संस्थाओं के परिसर में ऐसा देखा गया कि मेहमानों और आगंतुकों क बुलाकर भोजन कराने की व्यवस्था शुरू हो चुकी है और इस काम में एक बड़े वर्ग को लगाया भी गया है ; हो सकता है संस्था की कमाई भी बढ़ी हो, पर विचार और संस्कार को उस रौनक के नीचे दब जाते हुए देखा गया | अधिकांश वरिष्ठ मित्रों और कार्यकर्ताओं का भी यही मत है कि संस्थाएँ अपने मूल ध्येय से भटक चुकी है और उनके सामने अपने ही अस्तित्व को टिकाए रखने का प्रश्न निर्माण हो चुका है | कई सस्थाओं को जनता जनार्दन में पैसों का पहाड़ दिखता है और विचारों व सर्वोदय संस्कारों से मीलों दूर किसी चमक दमक वाले गलियारों में वे सबके सब भटक रहे हैं | कभी सर्व भारतीय स्तर की मानी जानेवाली संस्था भी इन दिनों कूप मंडूकता से ग्रस्त होकर उसी हिसाब में लग चुकी है कि पैसों के मार्ग से और अधिक पैसा किस प्रकार से हासिल किया जा सके | कई संस्था प्रमुखों का घमंड इस कोटि का हो गया है कि उन्हें अपने विरोध में एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं | अतः यही वास्तविक है कि आनेवाले दिनों में इन संस्थाओं को कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे और इन्हें नौकरों की टोली से ही काम निकालना होगा | जाहिर सी बात है क़ी अब संस्था चलाने का खर्च भी बढ़ेगा |