मेरी दुसरी पुस्तक "बेटी की पाती" को मैंने मेरी माँ और पिताजी को समर्पित किया है।
माँ बच्चों की गुरु होती है । जिनके साये में बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं। मेरे लिये दोनों ही मेरी प्रेरणा रहे हैं। माँ अब इस दुनिया में नहीं है
मेरी माँ की सोच औरतों के प्रति बहुत मान सम्मान वाली थी । उनकी इसी सोच की वजह से मैनें इस पुस्तक में बेटीयों तथा औरतों के सामाजिक परिवेश को आप तक पहुंचाने की कोशिश की है ।
मेरे पिता का आशीष अभी मेरे सिर पर है। उन्होंने सन् 1957 में अध्यापन के क्षेत्र में कार्य शुरू किया और अनेकों उपलब्धियां हासिल की। शिक्षा और खेल को बढ़ावा दिया। कई बार गांव की पंचायतों के द्वारा ईनाम हासिल किये। अन्त में सन् 1988 में प्रिंसिपल के पद से सेवानिवृत हुये। मेरी खुशनसीबी है जो 90 साल की आयू में उन्होनें मेरी पुस्तक को अपनों शब्दों के माध्यम से आशीष दिया। आप दोनों को सादर नमन करती हूँ और आपके स्वस्थ रहने की कामना के साथ अपने शब्दों को विराम देती हूँ..... आपकी बेटी ...
उर्मिल श्योकन्द ।
लेखन करना मेरा बचपन का सपना था ... जो अब मेरे परिवार के प्रोत्साहन तथा माँ-पापा के आशीष से पूर्ण हुआ... मै अपने लेखन को सीमाओं में नहीं बांध सकती है.. अपने चारों ओर जो देखती हूँ , महसूस करती हूँ , उसे अपने दिल के जज्बात के रूप में पन्नों पर उतारती हूँ ... विषय कोई भी हो ,सीधा और सरल लेखन ही पसन्द करती हूँ...ताकि आप सब के दिलों तक पहुंच सकूं। लेखन में अगर सरल शब्द हैं तो आम जन को आसानी से समझाया जा सकता है कि लेखक क्या कहना चाह रहा है ।