वैसे तो लखनऊ की हवा में ही मिठास घुलि हुई है पर नमकीन भी हद्द है ये शहर।नवाबों का शहर...नवाबों सा शहर, इतने रंग हैं इसके कि हर रंग में बेहद ख़ूबसूरत।एक लखनवी की ज़िन्दगी से जुड़ी चंद खट्टी-मीठी यादें। लखनऊ की ज़ुबाँ पर अक़्सर आने वाले लफ़्ज़-“भौकाल”, ”बकैती”, ”हुज़ूर”, ”अमाँ मियाँ”; ‘गंज’ और ‘अमीनाबाद’ से जुड़ीं कुछ रंगीन दास्तानें और उनमें सराबोर ‘रंगबाज़ी’ से भरा एक लखनवी का दिमाग़ी फ़ितूर। हंसी-मज़ाक और व्यंग इस शहर की मिट्टी में अपने-आप उग आता है। बातें बेलौस कह दी जाती हैं। अक्खड़ी देसी सोच हो और वो भी रंगीन, तो बात निकल ही आती है शहरों की। क़िस्से-कहानियाँ और मज़ेदार मिसालों से भरी ये पुस्तक पाठक को हँसाती भी है और बहुत कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है। ये कहानियाँ आप की ज़िंदगी की भी हैं। कुछ ज़ायके, कुछ तीखे मसाले; थोड़े चुलबुले मज़ाक दोस्तों के; थोड़ा अल्लहड़पना जवानी का; कुछ ममता की गहरी सी छाँव और वो गलियाँ जिनमे हम सब कभी-न-कभी भरी दुपहरी में खेल चुके हैं। पेश-ए-ख़िदमत है ‘रंग-ए-लखनऊ’।