स्त्री का हृदय मोम के जैसा होता है। तात्पर्य कोमलता से नहीं, मोम की इस विशेषता से है कि ज़रा सी ऊष्मा से पिघल जाता है। स्वयं जलकर दूसरों के आँगन में प्रकाश देता है, और अँधेरा अपने तले में एकत्र कर लेता है। जब उजाला फैलाने की ताकत नहीं रहती तो अँधेरे पर बिखरकर, जमकर उसे दूसरों तक पहुँचने से रोक लेता है।
कहा जाता है कि हर पुरुष की सफलता में एक स्त्री का हाथ निश्चित होता है। प्रश्न उठता है कि सफलता पर क्या पुरुष का एकछत्र साम्राज्य है। बदलते युग की बदलती नारी जब पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, बल्कि तेज़ चलकर आगे बढ़ रही है, तो सफलता पर उसका भी समान अधिकार सिद्ध हो चुका है। परंतु नारी की सफलता में भी किसी पुरुष की बराबर की भूमिका रहती है। फिर वह पुरुष चाहे पिता हो, भाई हो, पुत्र हो, पति हो या प्रेमी ही क्यों न हो। ये सभी कभी अभिप्रेरक तो कभी प्रेरक की, कभी मार्गदर्शक की तो कभी समीक्षक की, कभी सहयोगी की तो कभी परामर्शदाता की भूमिका अदल-बदल कर निभाते रहते हैं।
ऐसी ही कुछ मिश्रित भावनाओं में रुकते-चलते जीवन के उतार-चढ़ाव का चित्रण मैंने अपने उपन्यास ‘रोशनी का पहरा’ में करने का प्रयास किया है। अध्ययन की सुविधा तथा घटनाक्रम की तारतम्यता के अनुसार मैंने उपन्यास को 10 खंडों में विभक्त किया है। प्रत्येक खंड के नाम जैसे- पहला ‘यादों के भँवर’, दूसरा ‘उजली भोर’, तीसरा ‘उड़ान और बसेरा’, चौथा ‘उघड़ा ज़ख्म गहरा’, पाँचवाँ ‘रिश्तों की डोर’, छठा ‘बंधन के महीन धागे’, सातवाँ ‘मन भागे रे भागे’, आठवाँ ‘उपाय और निदान से आगे’, नौवाँ ‘शहनाई का आलम सुनहरा’ तथा दसवाँ व आखिरी ‘रोशनी का पहरा’ कहीं न कहीं उपन्यास की मुख्य पात्र ‘ऊष्मी’ के जीवन की लड़ियों को कुछ शब्दों में झलकाने का प्रयत्न हैं।
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