मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पर विजय श्रीवरण करने के कारण ही शंकराचार्य को जगद्गुरु के रूप में ख्याति मिली थी। शंकराचार्य का उद्घोष था- ‘‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’’ और मण्डन मिश्र का ‘‘जगत्सत्यं ब्रह्म मिथ्या’’। शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को हारने पर सन्यास ग्रहण करना था जबकि शंकराचार्य को हारने पर गृहस्थाश्रम स्वीकार करना था। कई दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा। मण्डन मिश्र की पत्नी उभय भारती शास्त्रार्थ की अध्यक्षता कर रही थी। इसी कथा को इस उपन्यास के ‘‘पूर्वार्द्ध’’ में स्पष्ट किया है।
शंकर-शास्त्रार्थ के ‘‘उत्तरार्द्ध’’ में जब मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी होने के नाते शंकराचार्य से आग्रह करती है कि मुझे हराये बिना मण्डन मिश्र की पराजय सिद्ध नहीं हो सकती। भारती व शंकराचार्य के मध्य हुए शास्त्रार्थ की अध्यक्षता राजराजेश्वर सुधन्वा ने स्वीकार की। भारती द्वारा नर-नारी सम्बन्ध पर प्रश्न करने पर शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश द्वारा ज्ञान प्राप्त कर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। मण्डन मिश्र ने सन्यास ग्रहण किया। ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ के पूर्वार्द्ध में शास्त्रार्थ का सम्पूर्ण विकास क्रम अत्यधिक प्रभावकारी एवं रोचक है।