जिन आँखों से शादाब पहले क्लियर दिखता था, अब ब्लर होता जा रहा था। उसके पिक्सल टूटते जा रहे थे। जैसे कभी-कभी कोई फ़ोटो एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल में भेजते ही अपनी क्वालिटी खो देती है वैसे ही शादाब भी उसकी नज़रों से निकलकर दूसरी की नज़रों में जाकर धुंधलाता जा रहा था। उसे क्लियर करने की कोशिश में वह उससे जा उलझती और वह और भी धुँधला जाता। ऐसी ही कोशिश में एक दिन उसने शादाब की बजाय ख़ुद को धुँधला पाया। मोहब्बत के अर्श से बेवफ़ाई के फ़र्श पर खुद को गिरता पाया। इश्क में टूटते तो बहुत हैं, टूटकर खुद को बिखरता पाया। दिल और रूह तो उसकी पहले ही खंडित हो चुकी थी, अपनी देह को भी उसने खंड-खंड पाया।
मुक़म्मल इश्क़ की तलाश में घर से चली थी..
पर हाय री तक़दीर, टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी थी।