वस्तुतः व्यंग्य का जन्म व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अथवा किसी न किसी परिस्थितिगत विसंगति से ही होता है। व्यंग्यकार का अंतस् जो होना चाहिए, उसके न होने से आहत होता है, तभी वह उस विसंगति पर अपने लेखन से चोट करता है। उसकी इस चोट में एक ओर हास्य-व्यंग्य का आनन्द रहता है तो दूसरी ओर उस विसंगति के त्रास की सघन अनुभूति भी उजागर होती है जो पाठक को जागरूकतापूर्ण संदेश देती है, उसे झकझोरकर उसकी आँखें खोलती है। उसकी दृष्टि को उन अतल अंधकारों तक ले जाती है जहाँ सहज ही वह नहीं देख पा रहा है। व्यंग्यकार की सफलता इसी में है कि वह उन अतल अंधकारों को अपनी भाषा की सहज सम्प्रेषणीयता और संकेतात्मक षैली के माध्यम से किस कुशलता से आलोकित कर पाता है।इस संकलन का पहला व्यंग्य प्रख्यात व्यंग्यकार श्री श्रवण कुमार उर्मिलिया का है जिसमें उन्होंने दहेज की प्रतिस्पर्धा के परिणामों की ओर इशारा किया है। अपनी पत्रवधू जब दहेज लाई थी तो वह लक्ष्मी थी लेकिन जब अपने रिश्तेदार की पुत्रवधू उससे भी अधिक दहेज ले आई तो अपनी पुत्रवधू कुलक्षिनी हो गई।‘छोटके का मोलभाव’ व्यंग्य में लड़की के पिता के सामने ‘छोटके का मोलभाव’ तय करने के लिए पूरे गाँव के बुजुर्ग एकत्रित होते हैं। पूरा मोल-भाव होता है किन्तु अन्त में छोटका ही दहेज के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। संकलन के दूसरे पूरे व्यंग्य में दहेज के सम्बन्ध में गाँव के निवासियों की एक-दूसरे से ईर्ष्याभाव और शिक्षित पीढ़ी के द्वारा दहेज जैसे कोढ़ से मुक्ति का प्रयास प्रकट किया गया है।संकलन के तीसरे व्यंग्य-‘राख की ढेरी’ में डॉ. अलका पाठक ने समाज के ऐसे रसूखदार व्यक्तियों के व्यक्तित्व पर करारा व्यंग्य