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Manu Vaish
GENERAL LITERARY
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Submitted to Contest #5 in response to the prompt: 'A simple “yes” leads to something you never saw coming'

आदर्श घर की दीवारें

सुबह के सात बजे थे। घर में रोज़ की तरह हलचल थी, लेकिन प्यार कहीं नहीं था। किचन से आती बर्तनों की आवाज़ और ड्राइंग रूम में टीवी की ऊँची आवाज़ के बीच, श्रुति चाय बनाते हुए अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थी।

“श्रुति! कॉफी कहाँ है? कब से कह रहा हूँ स्टॉक खत्म हो रहा है। तुम सुनती हो भी या नहीं?”
विकास की खीज भरी आवाज़ पूरे घर में गूंज उठी।

“लाकर रखी थी… शायद माही कामवाली ने गलत जगह रख दी हो,” श्रुति ने शांत स्वर में कहा।

“माही को कोसने से अच्छा है कि तुम खुद थोड़ा ध्यान रखो। दिनभर घर में करती ही क्या हो? एक कॉफी तक मैनेज नहीं कर सकती?”
विकास ने कप ज़ोर से टेबल पर पटक दिया।

उसके बेटे आरव ने मां की तरफ देखा, जैसे कहना चाहता हो—“क्या मैं कुछ करूं?”
लेकिन उसकी आँखों में वही डर था, जो श्रुति की आँखों में हर रोज़ बस गया था।

श्रुति ने मुस्कुराने की कोशिश की, और धीमे से बोली,
“आरव, तुम स्कूल के लिए तैयार हो जाओ। मम्मा सब ठीक कर लेगी।”

बाहर से देखने पर घर में सब कुछ था—पैसा, सुविधा, सामाजिक रुतबा। पर इस “सुखी” गृहस्थी में कोई प्यार, कोई अपनापन, कोई स्पर्श नहीं था जो संबल दे सके।

विकास कभी शराबी नहीं था, न ही महिला-मित्रों के चक्कर में पड़ता था। लेकिन उसका अहंकार, और हर बात में दोष श्रुति पर डालने की आदत ने रिश्ते को खोखला बना दिया था।

श्रुति की कविताएँ अब डायरी में कैद थीं—उन्हें अब कोई सुनता नहीं था।

उस रात उसने फिर से अपनी डायरी खोली और लिखा—

“मैं हर दिन इस घर में रहती हूँ, लेकिन अब घर मेरे अंदर नहीं रहता।”

वो पुराना नाम… मनीष

उस दिन, रात के ग्यारह बजे जब सब सो गए, श्रुति ने अपने पुराने फोटो देखना शुरू किया। कॉलेज के दिन, हॉस्टल की मस्ती, ऑल इंडिया कविता प्रतियोगिता की ट्रॉफी—जैसे खुद को यकीन दिला रही हो कि वो एक वक्त में ‘ज़िंदा’ थी।

एक नोटिफिकेशन आया:
Manish Tripathi sent you a friend request.

श्रुति ने जैसे ही नाम देखा, दिल की धड़कन थोड़ी तेज़ हो गई।

“मनीष?”

कॉलेज का वही मनीष—जो उसकी कविताओं पर घंटों बातें करता था, जो कहा करता था, “तुम्हारी आवाज़ में समंदर की तरह गहराई है।”

उसने रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की।
कुछ ही पलों में मैसेज आया—

“श्रुति! Seriously? तुम वही हो? Years later… और तुम अब भी वैसी ही दिखती हो।”

श्रुति हँस दी—वो एक मीठी हँसी थी जो बरसों बाद आई थी।

“तुम्हें देखकर अच्छा लगा मनीष।”
“तुमने कविताएं लिखनी बंद कर दी?”
“शब्द अब भी हैं, बस सुनने वाला नहीं रहा।”

रात को मनीष से बातें करते हुए उसकी आँखें भर आईं। उसने लिखा—
“कभी-कभी लगता है जैसे मैं सिर्फ़ एक मशीन बन गई हूँ—बिना आवाज़, बिना स्पर्श, बिना चाहत।”

मनीष ने जवाब दिया—
“तुम सिर्फ़ मशीन नहीं, एक खूबसूरत एहसास हो। सिर्फ़ तुम्हें फिर से महसूस करना सीखना होगा।”

बिखराव की रात

उस दिन आरव को स्कूल से वापसी पर बुखार था। श्रुति उसे लेकर डॉक्टर के पास गई, दवाइयाँ लाईं, और देर शाम घर लौटी। विकास पहले से गुस्से में था।

“बिजली का बिल आज आखिरी तारीख थी। जमा नहीं किया?”
“विकास, आरव को तेज़ बुखार था—डॉक्टर के पास गई थी…”
“तो? एक काम नहीं कर सकती क्या तुम?”
“प्लीज़, पहले बच्चे को देखो, फिर बिल भी भर जाएगा।”

विकास ने गुस्से में कुर्सी को लात मार दी।
“अब तू मुझे सिखाएगी? तुझसे बेहतर तो मेरी ऑफिस की पियॉन है!”

श्रुति चुप रही, पर भीतर से हिल चुकी थी।

“तुम्हारे शब्द हमेशा मेरे आत्म-सम्मान को मारते हैं,” उसने धीरे से कहा।

विकास ने पास आकर एक थप्पड़ जड़ दिया।

“शब्दों की ज़रूरत नहीं, बस मेरी बात मानो।”

उस रात बालकनी में बैठकर श्रुति ने आसमान की ओर देखा। चाँद था, पर उसकी रौशनी तक भारी लग रही थी।

फोन पर एक मैसेज चमका—“Are you okay?”

मनीष।

उसने जवाब में सिर्फ़ एक शब्द टाइप किया:
“नहीं।”
वो ‘हाँ’ जो नियति बन गई

अगली सुबह, श्रुति की आंखें सूजी हुई थीं, लेकिन चेहरा शांत था—जैसे कोई बड़ा निर्णय ले चुकी हो। आरव अब स्कूल में था। विकास ऑफिस जा चुका था।

फोन पर फिर मैसेज आया—

“क्या आज मिल सकती हो?” – मनीष

उसने पहली बार कुछ सोचे बिना जवाब दिया:
“हाँ।”

उस ‘हाँ’ में कुछ टूटने की आवाज़ थी, लेकिन शायद उससे भी बड़ी थी किसी चीज़ को पकड़ने की कोशिश—जिसे वह खुद भी समझ नहीं पाई थी।



कॉफी शॉप, शाम 4 बजे।

मनीष सामने बैठा था। उसने हल्की मुस्कान दी, लेकिन आंखें देखकर समझ गया कि कुछ गहरा हुआ है।

“श्रुति, तुम आज कुछ अलग लग रही हो।”

“शायद क्योंकि मैं अब पहले जैसी नहीं रही।”

“क्या हुआ?”

“विकास ने कल मारा। फिर कहा—‘अब ये बोलने की आदत मैं छुड़वा दूंगा।’”
(उसने आंखें नीचे कर लीं)
“मैं थक गई हूं, मनीष… बहुत थक गई हूं।”

मनीष ने उसका हाथ थामते हुए कहा,
“तुम्हारे भीतर जो टूटा है, वो मैं जोड़ तो नहीं सकता, पर उसके साथ बैठ सकता हूँ।”

श्रुति की आंखें भर आईं। कुछ पल दोनों चुप रहे।

“कभी-कभी लगता है तुमसे पहले मिल जाती तो शायद मेरी ज़िंदगी कुछ और होती,” मनीष ने कहा।

“पर अब मिल ही गए हो… तो क्या फर्क पड़ता है?”
उसने धीमे से कहा।

उस शाम उनकी उंगलियां पहली बार जुड़ीं। दिल से नहीं, ज़रूरत से। प्यार नहीं था—बस अकेलेपन का बाँध टूटा था।



छिपी परछाइयाँ

श्रुति और मनीष की मुलाक़ातें बढ़ने लगीं।

कॉफी, लॉन्ग वॉक, पुरानी शायरी, कॉलेज की बातें—हर छोटी चीज़ अब बड़ी लगने लगी।

“तुम्हारी हँसी, श्रुति… वो अब लौट रही है।”

“तुम्हारे साथ हूँ तो लगने लगा है कि मैं भी इंसान हूँ… कोई मशीन नहीं।”

मनीष ने उसके लिए गिफ्ट लाया—एक नोटबुक, जिस पर लिखा था:
“तुम्हारे शब्दों में जीवन है। फिर से लिखो।”

श्रुति ने पहली बार किसी के लिए कविता लिखी—

“जो टूटा था, वो तुमने देखा नहीं,
पर तुमने मेरी बिखरी हुई सांसें गिन लीं।”

लेकिन अंदर कहीं वो जानती थी—मनीष शादीशुदा है। उसका परिवार है। फिर भी वो खुद को रोक नहीं सकी।

सब कुछ उजागर

एक दिन श्रुति किचन में थी, जब विकास ने उसका मोबाइल देखा।

पासवर्ड नहीं था और स्क्रीन पर मनीष का मैसेज खुला था:

“काश मैं तुम्हें अपनी दुनिया में पूरी तरह शामिल कर पाता…”

“तो अब यही बाकी रह गया था?”
विकास की आवाज़ बिजली की तरह गूंजी।

श्रुति डर गई नहीं, थमी रही।

“हाँ, ये बाकी था। तुम्हारे तानों, थप्पड़ों और अपमान के बाद… किसी ने मुझे इंसान समझा, यही मेरी गलती है?”

विकास ने दीवार पर घूंसा मारा।
“बेटे को लेकर निकल जा। इस घर में अब तेरी कोई जगह नहीं!”

आरव पास खड़ा रो रहा था।
“मम्मा प्लीज़, मत जाओ।”

श्रुति ने बेटे को गले लगाया। उसका मन चिल्ला रहा था—“कहाँ जाऊँ?”
पर शरीर शांत था।

वो घर छोड़कर चली गई। उस घर को जो कभी उसका सपना हुआ करता था।

टूटी उम्मीदें

श्रुति ने मनीष को फोन किया।

“मैं आ रही हूं। कुछ और नहीं बचा अब मेरे पास।”
मनीष थोड़ा हिचका।
“अभी? मतलब तुम सब छोड़ आई हो?”
हाँ… क्या तुम नहीं चाहते थे कि मैं तुम्हारे पास आ जाऊं?”

मनीष चुप हो गया।

जब वह पहुँची, मनीष की आंखों में घबराहट थी।

“श्रुति, मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम सबकुछ छोड़ दोगी…”

“तो फिर तुम्हारे सारे शब्द… वो हाँ? वो हाथ थामना?”

“मैं तुम्हारे दर्द में साथ देना चाहता था। पर अब तुम मुझसे उम्मीद कर रही हो कि मैं अपनी पत्नी, बच्चे, ज़िंदगी सब छोड़ दूं…”

“तो मैं क्या करूँ, मनीष? फिर से उसी नर्क में जाऊँ?”

“मैं… मैं तैयार नहीं हूँ।”
श्रुति का चेहरा एकदम शांत हो गया।
उसने बस एक वाक्य कहा—

“तो फिर तुम भी वही निकले—जो सुनते तो हैं, पर साथ नहीं निभाते।”

वो वहाँ से चली गई, और शायद पहली बार उसका दिल नहीं टूटा था, उसकी आत्मा फट गई थी।

समाज के ताने

मायके में माँ ने चुपचाप खाना परोसा, फिर धीरे से कहा—

“तेरे जैसी लड़कियाँ ही समाज की बदनामी बनती हैं। तुझमें ही कोई कमी रही होगी, तभी पति पराए की ओर गया होगा।”

भाई ने आंखों में नफ़रत लेकर कहा—
“हमारे परिवार का नाम मिट्टी में मिला दिया। तुझे यहां रहने का कोई हक़ नहीं।”

श्रुति ने कुछ नहीं कहा।

उसने बस खुद से कहा,
“जब तक मैं चुप थी, सबने सहनशील कहा। जब बोली, तो चरित्रहीन।”

फिर खुद से जुड़ना

श्रुति ने एक छोटे फ्लैट में रहना शुरू किया। आरव उसके साथ था। वो अब भी माँ को ‘सबसे बहादुर’ कहता था।

उसने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी शुरू की। और हर दिन, वो खुद को थोड़ा-थोड़ा जोड़ने लगी।

डायरी फिर से खुली। शब्द लौटे। इस बार वो रुलाते नहीं थे—उठाते थे।

“अब किसी की हाँ मेरी मंज़िल नहीं होगी। मेरी मंज़िल मैं खुद बनूंगी।”

पूर्णता की ओर

तीन साल बाद—एक सेमिनार में अतिथि वक्ता था: मनीष।

जब वो स्टेज से नीचे उतरा, सामने एक साड़ी पहने, आत्मविश्वासी और चमकती आंखों वाली स्त्री खड़ी थी—श्रुति।

“कैसी हो?”

“बहुत अच्छी।”

“अब भी… कुछ है हमारे बीच?”

“नहीं मनीष। तुम्हारी ‘हाँ’ ने मुझे तोड़ा था… पर उसी ने मुझे फिर से बना भी दिया।”

मनीष कुछ नहीं कह सका।

और श्रुति—अब एक आत्मनिर्भर स्त्री, माँ और लेखिका—सीधे मंच पर चढ़ी और एक कविता सुनाई:

“एक हाँ ने तोड़ा, एक ना ने जोड़ा।
अब मैं किसी शब्द की मोहताज नहीं।”

Manu vaish

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