भिवानी — मध्य प्रदेश का एक शांत लेकिन आधुनिकता से स्पर्शित कस्बा, जहाँ ज़िन्दगी इतनी तेज़ नहीं भागती लेकिन लोग एक-दूसरे की धड़कनों को पहचान लेते हैं। छोटे से मोहल्ले में बनी पीली रंग की कोठी, जो वहाँ के स्कूल के प्रिंसिपल हरिशंकर अवस्थी की पहचान थी, वहाँ एक लड़की रहती थी — रिया।
रिया, 20 साल की होशियार, गंभीर और आत्मनिर्भर लड़की, गाँव से पढ़ाई के लिए यहाँ अपने चाचा-चाची के पास आई थी। पिता एक प्राथमिक शिक्षक, माँ गृहिणी। रिया में कुछ खास था वह सपनों को सिर्फ देखती नहीं थी, उन्हें जीने की हिम्मत भी रखती थी।
चाचाजी — हरिशंकर अवस्थी, कस्बे में काफी प्रतिष्ठित थे। स्कूल में सख्त अनुशासन, समाज में संस्कारों की बातें, और घर में एकदम नियंत्रित वातावरण। मधु चाची, थोड़ी चुप रहने वाली, मगर हमेशा रिया का ध्यान रखतीं। रिया को भी हमेशा यही समझाया गया कि वह भाग्यशाली है, जो ऐसे कुल में पढ़ाई का अवसर मिला।
सब कुछ ठीक चल रहा था, कॉलेज, घर, पढ़ाई। रिया अक्सर सोचती थी, “काश मेरी शादी भी ऐसे किसी घर में हो, जहाँ जिम्मेदारी और आदर्श दोनों हों।”
पर काश… ज़िन्दगी उतनी सरल होती, जितनी दिखती है।
घटना का पूर्वाभ्यास
पिछले कुछ दिनों से रिया को एक अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। चाचाजी अकसर फोन पर कुछ धीमी आवाज़ में बातें करते। जब रिया कमरे में घुसती, वह फोन रख देते या विषय बदल देते।
एक दिन, कॉलेज से लौटते समय रिया ने अपनी सहेली नीतिका से बात की —
“नीति, कभी-कभी लगता है जैसे सब कुछ दिखावा है… यानि बाहर से सब ठीक, लेकिन भीतर कुछ और।”
“तू चुपचाप रह ना, सबके घर में थोड़ी बहुत बातें होती हैं,” नीतिका ने हँसते हुए कहा।
पर रिया को चैन नहीं मिला।
एक शाम, वह लॉबी में बैठकर पढ़ रही थी। तभी चाचाजी आये, किसी से बात करते हुए। उनके साथ एक अपरिचित आदमी था — सादी पैंट-शर्ट, हाथ में फाइलें।
“यह वही है,” चाचाजी ने उसे इशारा करते हुए कहा।
रिया ने देखा, चाचाजी उस आदमी को ड्रॉइंग रूम में ले गए और दरवाज़ा लगभग बंद कर दिया।
उत्सुकता से, रिया उठी और सीढ़ियों की आड़ में खड़ी हो गई।
“कागज़ पूरी तरह तैयार हैं,” उस आदमी ने कहा।
“रिया के नाम की ज़मीन अब तुम्हारे नाम पर है।”
हरिशंकर जी ने गहरी साँस ली,
“उसके पिता को तो यह भी नहीं पता कि हमने बैंक से लोन के नाम पर क्या-क्या करा लिया। लड़की सीधी है, दो महीने में वापस भेज देंगे। अब जो ज़मीन थी, वह भी गई।”
रिया के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
क्या चाचाजी… वही चाचाजी… जिन पर उसने आँख मूँदकर विश्वास किया… उन्होंने उसके माता-पिता से धोखा किया?
उसकी आंखों में आँसू आ गए। वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई, किसी से कुछ नहीं कहा। उस रात वह सो नहीं सकी। सपनों में बस वही शब्द गूंजते रहे —
“लड़की सीधी है… अब जो ज़मीन थी, वह भी गई…”
घटना – जब रिया ने वह बात सुनी जिसे नहीं सुनना चाहिए था
शाम ढल चुकी थी। रिया ने खुद को पढ़ाई में व्यस्त रखने की कोशिश की, लेकिन दिमाग बार-बार उसी घटना की ओर खिंचता रहा — चाचाजी और वह अनजान व्यक्ति।
उस रात खाना खाने के बाद रिया जब अपने कमरे की ओर बढ़ी, तो उसने फिर से वही आवाज़ सुनी ड्रॉइंग रूम से धीमे स्वर में बातचीत। वह ठिठकी। कुतूहल उसे फिर खींच लाया सीढ़ियों के उस कोने में, जहाँ से आवाज़ें आती थीं लेकिन दिखाई कुछ नहीं देता था।
हरिशंकर जी की आवाज़ थी —
“अब चिंता मत कर… रिया के पापा तो सीधे-साधे आदमी हैं। जो कागज़ उन्होंने साइन किए थे, वे असली नहीं थे। उसमें हमने संपत्ति ट्रांसफर के कागज़ लगवा दिए थे। अब कोर्ट में भी जाएँ तो कुछ नहीं कर पाएँगे।”
दूसरी आवाज आई — “और लड़की? वो कुछ बोलेगी?”
चाचाजी ने हँसते हुए कहा —
“अरे! वह क्या बोलेगी? हमारे एहसान में पल रही है। उसे तो यही नहीं पता कि उसकी ज़मीन क्यों थी, कहाँ थी, और अब कहाँ है।”
रिया का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
“तो… यह सब प्लान पहले से था?”
“क्या मेरे मम्मी-पापा ने सच में धोखा खा लिया?”
“मैं जिनके भरोसे यहाँ हूँ, उन्होंने ही मेरे सपनों की नींव चुरा ली?”
उसने सुना चाचाजी आगे कह रहे थे —
“बस दो महीने और… जैसे ही उसकी पढ़ाई का साल पूरा हो, उसे वापस भेज देंगे। कहेंगे कि अब और संभालना मुश्किल है। गाँव जाए और वही करे जो लड़कियाँ करती हैं — शादी।”
रिया की आँखें भर आईं।
जो लोग उसे एक परिवार की तरह मिले थे, वो सिर्फ एक ‘सौदा’ देख रहे थे। उसके सपने, उसका भविष्य, उसकी जमीन… सबकुछ एक योजनाबद्ध धोखे में तब्दील हो चुका था।
उसने खुद को रोका — चीखने से, गिर पड़ने से, टूट जाने से।
चुपचाप अपने कमरे में लौटी। दरवाज़ा बंद किया। तकिये में मुँह छुपाकर खूब रोई।
इतना कि आवाज़ तक निकलनी बंद हो गई।
आंतरिक संघर्ष – विश्वास, भय और निर्णायक रात
रिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
चुप रहे?
सब कुछ सह ले जैसा कि अक्सर लड़कियों से अपेक्षा की जाती है?
या कुछ बोले ,पर किससे?
उसे माँ-पापा की शक्ल याद आई
वो दिन जब पापा ने उसे चाचाजी के घर छोड़ा था,
“बिटिया, पढ़ ले अच्छे से। हरिशंकर भैया बहुत अच्छे हैं, तुझमें अपना बच्चा देखते हैं।”
अब उसी भरोसे की बुनियाद दरक चुकी थी।
रिया के मन में खलबली मची थी।
उसे विश्वास था कि जो सुना, वह सपना नहीं था।
पर उसके पास कोई सबूत नहीं था।
सिर्फ उसके कानों में गूंजते वाक्य… और दिल में उठती सुलगती बेचैनी।
उसने मोबाइल उठाया ,पापा का नंबर देखा।
उँगलियाँ कांप रही थीं।
फोन काट दिया।
“नहीं… अभी नहीं। पहले खुद सब जानना होगा। बिना पुख्ता जानकारी के बोलूंगी, तो सब मुझे ही गलत समझेंगे।”
रिया ने उस रात निश्चय किया —
“कल मैं तहसील जाऊँगी। देखूँगी कि ज़मीन का रिकॉर्ड क्या है। अगर सब कुछ सच हुआ… तो इस बार चुप नहीं रहूँगी।”
अगली सुबह उसने बहाना बनाया कि कॉलेज में प्रोजेक्ट का काम है और छुट्टी चाहिए। चाची को कोई शक नहीं हुआ।
रिया सीधे पहुँच गई तहसील कार्यालय।
क्लर्क ने कागज़ों की तहें पलटीं।
“नाम बताइए?”
“रिया अवस्थी… दानदाता — रमेश अवस्थी, मेरे पापा।”
कुछ देर में जो फाइल सामने आई, उसने रिया के होश उड़ा दिए।
ज़मीन का नाम — हरिशंकर अवस्थी।
स्थान — वही जो पापा ने रिया के नाम रजिस्टर करवाया था।
ट्रांसफर की तारीख — छह महीने पहले।
और दस्तखत — फर्जी।
उसके पापा के दस्तखत जैसे लगे, पर वह जानती थी, असली नहीं थे।
रिया काँप रही थी। उसने अपनी आंखों से पढ़ा, पर दिल मानने को तैयार नहीं था।
“उन्होंने सच में सब कुछ ले लिया…”
“मेरा हक, मेरे पापा की मेहनत, मेरा भविष्य…”
“अब क्या करूँ?”
रिया ने फाइल की कॉपी माँगी।
क्लर्क ने संदेह से देखा —
“आप कौन हैं?”
“उनकी भतीजी। और ये ज़मीन मेरे नाम होनी चाहिए थी।”
क्लर्क ने सिर हिलाया।
“बहनजी, आप एक वकील से बात करें। अगर आप कहें तो तहसील के वरिष्ठ अधिकारी से अपॉइंटमेंट दिला सकते हैं।”
रिया बाहर निकली। धूप तेज थी, लेकिन उसके मन का अंधकार और गहरा था।
उसी शाम, उसने पापा को फोन किया। आवाज भारी थी।
“पापा…”
“हाँ बेटी?”
“क्या आपने कभी कोई ज़मीन के पेपर्स चाचाजी को दिए थे?”
“हाँ बेटा, रखे थे उनके पास। तुम्हारी पढ़ाई के लिए ही तो था सब तेरे नाम था।”
रिया रो पड़ी।
“पापा… वो अब मेरे नाम नहीं है।”
“क्या??”
“मैं आज तहसील गई थी। सब कुछ चाचाजी के नाम हो चुका है।”
फोन की दूसरी तरफ सन्नाटा था।
पहला एक्शन – सच्चाई की खोज, वकील से मुलाकात और संघर्ष की शुरुआत
रिया के जीवन की दिशा अब बदल चुकी थी। वो सिर्फ एक छात्रा नहीं रह गई थी — अब वह एक ऐसी बेटी थी जिसे अपने पिता के भरोसे और अपनी हक़ की लड़ाई लड़नी थी।
उस रात, पापा से फोन पर बात होने के बाद रिया को एक अजीब-सी मजबूती महसूस हुई। पापा की आवाज़ काँप रही थी, उन्होंने दो-तीन बार कहा,
“बेटा, यकीन नहीं हो रहा… हरिशंकर भैया ऐसा कर सकते हैं?”
रिया ने कहा,
“अब यकीन करना होगा, पापा। हमारे भरोसे का सौदा किया गया है।”
अगली सुबह, रिया सीधे पहुँची वकील सतीश चौबे के पास, जो स्थानीय मामलों के अच्छे जानकार थे।
एक अधेड़ उम्र के, गंभीर लेकिन सहयोगी इंसान।
वकील ने पूरा किस्सा ध्यान से सुना, फिर पेपर देखे।
उन्होंने चश्मा उतारकर कहा,
“बेटा, यह क्लासिक फर्जी ट्रांसफर केस है। आप कहती हैं आपके पापा ने कभी ऐसा कोई पेपर साइन नहीं किया, तो इसका मतलब फर्जीवाड़ा हुआ है।”
रिया ने धीमी आवाज़ में पूछा,
“तो… कुछ हो सकता है क्या?”
“बहुत कुछ हो सकता है। पर रास्ता आसान नहीं है। सबसे पहले एफआईआर करानी होगी। फिर रजिस्ट्रेशन ऑफिस से कागजों की वैधता को चुनौती देनी होगी। कोर्ट में केस जाएगा।”
रिया ने तुरंत हामी भरी।
“मैं डरकर बैठने वालों में से नहीं हूँ।”
वकील चौबे मुस्कुराए —
“शाबाश। अब शुरुआत करो।”
वकील ने एक प्रारंभिक शिकायत पत्र तैयार करवाया। साथ ही एक नोटरी से दस्तावेजों की प्रतियाँ सत्यापित कराईं।
रिया ने शिकायत दर्ज करवाई — धोखाधड़ी, जालसाजी और संपत्ति हड़पने का मामला।
उसी दिन, वकील ने तहसील के दो कर्मचारियों को नोटिस जारी करवाया — दस्तावेज़ की वैधता और हस्ताक्षर की पुष्टि के लिए।
रिया को पता था कि अब बात घर तक भी जाएगी। पर अब पीछे हटने का सवाल नहीं था।
पारिवारिक टकराव – जब नकाब उतरते हैं
शाम को जब रिया घर लौटी, तो चाचाजी ड्रॉइंग रूम में अखबार पढ़ रहे थे। हमेशा की तरह सख्त चेहरा, पर आज रिया की नजरों में सब कुछ साफ था —
वो अब सिर्फ उसके ‘रक्षक’ नहीं, ‘हरने वाले’ बन चुके थे।
रिया ने सीधा जाकर कहा,
“चाचाजी, तहसील में आपकी फाइल देखी आज।”
चाचाजी ने भौंहें चढ़ाई, “क्या मतलब?”
“जिस ज़मीन पर मेरा अधिकार था, अब आपके नाम है। लेकिन कागज़ झूठे हैं। और मैंने केस दर्ज करवा दिया है।”
एक पल के लिए चाचाजी की आँखों में हलचल हुई। फिर वह हँसने लगे —
“बड़ी हो गई है तू, रिया? अब हमें सिखाएगी कि क्या गलत है?”
रिया का स्वर अब ठंडा लेकिन स्पष्ट था —
“आपने सिर्फ मेरी ज़मीन नहीं छीनी, चाचाजी। मेरे माँ-बाप का विश्वास, मेरी शिक्षा का आधार और मेरे सपनों की नींव छीनी है।”
तभी चाची रसोई से निकलीं, उनके चेहरे पर तनाव था।
“क्या हुआ?”
चाचाजी बोले, “तुम्हारी बेटी अब हमें कोर्ट में घसीटेगी।”
चाची स्तब्ध रह गईं।
“रिया? तुम सच में…?”
रिया की आँखें भर आईं।
“हाँ चाची… और आपको नहीं पता होगा, पर उन्होंने मेरे पापा के दस्तखत की नकल करवाई है।”
चाची ने चाचाजी की ओर देखा, “क्या… ये सच है?”
हरिशंकर जी अब चुप थे।
अगली सुबह रिया के पापा, रमेश अवस्थी, भिवानी पहुँचे। उनकी आँखें लाल थीं — न गुस्से से, न थकान से, बल्कि टूटे भरोसे से।
रिया से लिपटते हुए बोले —
“मैंने जिनके भरोसे तुम्हें छोड़ा… उन्होंने ही लूट लिया।”
रिया ने उन्हें हिम्मत दी —
“पापा, अब हम एकसाथ लड़ेंगे।”
रमेश जी ने अपने भाई से पूछा —
“भैया, क्यों किया आपने ऐसा? क्या आपको कभी मेरी बेटी अपने बच्चों जैसी नहीं लगी?”
हरिशंकर जी ने कोई जवाब नहीं दिया।
उनकी चुप्पी ही उनका अपराध कबूल रही थी।
मोहल्ले में बात फैल गई। मीडिया को भी भनक लग गई।
“स्कूल प्रिंसिपल पर भतीजी की संपत्ति हड़पने का आरोप”
पड़ोसी, जानकार, स्कूल के शिक्षक — सब दंग थे।
“जो आदमी हर समय ‘ईमानदारी’ की मिसाल देता था, वही…?”
मीडिया वाले घर के बाहर जमा होने लगे।
रिया ने एक इंटरव्यू में सिर्फ एक वाक्य कहा —
“मैं चुप रह जाती, तो मेरी अगली पीढ़ी भी अन्याय को सहती। आज आवाज़ उठाई है, कल और भी लड़कियाँ उठाएंगी।”
न्याय की राह – कोर्ट केस, गवाह और मीडिया का असर
रिया और उसके पापा ने वकील सतीश चौबे के मार्गदर्शन में जिला अदालत में केस दर्ज कराया:
धारा 420 (धोखाधड़ी), 467 (फर्जी दस्तावेज़ बनाना), 468 (धोखाधड़ी हेतु कागज़ तैयार करना), और 471 (फर्जी दस्तावेज़ का प्रयोग)।
वकील चौबे ने कोर्ट में स्पष्ट किया:
“यह सिर्फ संपत्ति का मामला नहीं है, यह एक लड़की के अधिकार, उसके भरोसे और भविष्य का सवाल है।”
पहली सुनवाई में ही कोर्ट ने तहसील को निर्देश दिया कि वो दस्तावेज़ों की वैधता की जाँच करे और दोनों पक्षों को जवाब दाखिल करने को कहा।
हरिशंकर जी की ओर से एक महँगा वकील आया, जिसने कहा,
“भतीजी भावनाओं में बहक गई है। संपत्ति उसके नाम नहीं थी — केवल मौखिक वादे थे।”
पर रिया अब चुप नहीं थी।
उसने कोर्ट में उन दस्तावेज़ों की कॉपी रखी, जो उसके पिता ने वर्षों पहले साइन किए थे — असली हस्ताक्षर, बैंक से जारी ऑरिजिनल पेपर।
इनके मुक़ाबले में चाचाजी के कागज़ों में कई विसंगतियाँ थीं तारीखें मेल नहीं खा रहीं थीं, दस्तखत अलग थे, और सबसे महत्वपूर्ण गवाह के नाम फर्जी थे।
रिया ने गवाह बनाए:
• तहसील क्लर्क विनोद, जिसने रजिस्ट्रेशन के वक्त संदेह जताया था
• बैंक अधिकारी, जिसने ऋण दस्तावेज़ों पर कार्य किया था
• मधु चाची, जिन्होंने कोर्ट में भावुक होकर कहा:
“मैं जानती थी कुछ गलत हो रहा है, पर विरोध करने की हिम्मत नहीं थी… आज शर्मिंदा हूँ।”
इस गवाही से कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
हरिशंकर जी का चेहरा पहली बार झुका।
इसी बीच मीडिया ने कहानी को और उठा लिया।
रील्स, यूट्यूब चैनल्स, स्थानीय समाचार चैनलों पर हेडलाइन बनी:
“भरोसे के नाम पर धोखा – एक बेटी की लड़ाई”
रिया को कई लड़कियों के कॉल और मैसेज आए —
“तुमने हमें आवाज़ दी।”
पर मामला अब गंभीर हो चला था — हरिशंकर जी ने रिया के ऊपर “मानहानि” का केस ठोंक दिया।
उनके वकील ने कहा:
“मेरे मुवक्किल की समाज में प्रतिष्ठा धूमिल हुई है।”
रिया की तरफ से जवाब था:
“सम्मान से बड़ा सच नहीं होता।”
क्लाइमैक्स – अंतिम सुनवाई और फैसला
अंतिम सुनवाई के दिन कोर्ट में खचाखच भीड़ थी। न्यायाधीश, वरिष्ठ, अनुभवी महिला थीं — जिनकी आँखों में वर्षों का अनुभव और समझ झलक रही थी।
जज ने पहले हरिशंकर अवस्थी के वकील से प्रश्न किया:
“आपके दस्तावेज़ों में दिए गए गवाहों के पते मिलान नहीं कर पाए। बैंक से कोई क्रेडिट नहीं हुआ। और दस्तखत फोरेंसिक रिपोर्ट में असत्य साबित हुए। आपके पास क्या बचा है?”
वकील चुप।
फिर जज ने रिया से पूछा:
“तुम्हें डर नहीं लगा? परिवार, समाज, प्रतिष्ठा… इन सबके विरुद्ध खड़ी हुई हो।”
रिया ने दृढ़ स्वर में कहा:
“डर तो तब लगा था जब सच को दबाने की कोशिश की गई। लेकिन अगर आज भी चुप रहती, तो शायद मैं अपने आप को कभी क्षमा नहीं कर पाती।”
कोर्ट ने निर्णय सुनाया:
1. ज़मीन की असली मालिकाना हक़ रिया अवस्थी को पुनः सौंपा जाए।
2. हरिशंकर अवस्थी पर दस्तावेज़ फर्जीवाड़े का अभियोग दर्ज रहेगा और पुलिस को विवेचना पूर्ण करने के निर्देश दिए जाते हैं।
3. रिया की मानहानि नहीं, बल्कि न्यायिक साहस की सराहना की जाती है।
पूरा कोर्ट तालियों से गूंज उठा।
मीडिया के कैमरे फिर रिया की ओर घूमे।
उसने हाथ जोड़कर कहा —
“यह मेरी नहीं, हर उस लड़की की जीत है, जो आज भी हक़ के लिए चुप है।”
चाची ने कोर्ट से बाहर आकर रिया को गले लगा लिया।
“माफ़ कर दो बेटा, हम तुम्हारे साथ नहीं खड़े हो पाए।”
रिया की आँखें नम थीं, लेकिन अब उनमें आँसू नहीं, जीत की चमक थी।
पापा ने कहा —
“तू सिर्फ मेरी नहीं, इस समाज की बेटी है।”
“जो सुना… अनसुना नहीं कर पाई”
एक लड़की की कहानी नहीं, उन तमाम आवाज़ों की कहानी है जो सुनाई तो देती हैं, पर अनसुनी कर दी जाती हैं।
रिया ने जो सुना, उसे चुपचाप सह सकती थी। लेकिन उसने चुना — लड़ना।