भारतीय संस्कृति में चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास मंे गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इसे आश्रम के ही एक गृहस्थ अनेक धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करते हुए सन्तानोपत्ति द्वारा अनेक ऋणांे से उऋण होता है। ‘पुंनाम नरकात् त्रायते पुत्रः’ अर्थात पुत्र को नरक से मुक्ति का साधन कहा गया है जो कि गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ही सम्भव है और यह सन्तोन्पत्ति एक रजस्वला तथा स्वस्थ स्त्री से ही सम्भव है। अतः हमारे मनीषियांे ने रजस्वला स्त्री के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुये अनेक नियम निर्धारित किये, उसे तीन दिन तक समस्त शारीरिक तथा मानसिक कार्यो से मुक्त रखा गया। धर्मशास्त्र में रजस्वला स्त्री से किसी भी प्रकार का कार्य कराना अपराध माना गया। इतना ही नही इस समय स्त्री को सम्पूर्ण आराम की स्थिति में रखने के उद्देश्य से ही ‘अपवित्रा’ कहा गया। रजोधर्म तथा गर्भाधान संस्कार दोनांे एक दूसरे के पूरक हंै क्योंकि भारतीय ग्रन्थों के अनुसार रजस्वला स्त्री के ऋतुस्नान के पश्चात गर्भाधान करने से स्वस्थ, सुन्दर तथा गुणवान सन्तान की उत्पत्ति होती है। किन्तु शनैः-शनैः इस अवस्था को कतिपय विकृत मानसिकता के लोगो ने इसे धर्म से जोड़कर स्त्री को सामाजिक स्तर पर ऐसे समय में पृथक कर दिया और यह व्यवस्था जो स्त्रियों के स्वस्थ रहने के लिये बनाई गयी थी वह उनके लिये वर्जना के रूप में परिवर्तित हो गयी। रजोदर्शन जो एक स्त्री की सम्पूर्णता का द्योतक था, वही आवरण का विषय बन गया।